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POEMS by Sheel Nigam

मुट्ठी भर रेत

 

मुट्ठी भर रेत, सूखी सी,

छोड़ गई रीतापन हाथों में,

रह गया शून्य सा मन.

 

एक आस जगी, जब बन बैठा-

छोटा सा बच्चा, मन,

करने लगा बाल-हठ

वो सब पाने को,

जो खो चुका था जीवन.

 

जागी एक लगन,

और............

मन के शून्य,

बन गए दो नयन,

बह गया विषाद,

उन नयनों के

झरोखों से,

और.........

बदल गई दिशा दृष्टि राहों की.

 

इस बार..............

वो रेत सूखी न थी,

उसमें थी नमी अश्रुओं की

और कुछ खारापन भी,

जो ना रिस पाया, न बह पाया,

मेरी इस बंद मुट्ठी के भीतर से,

चार उंगलियों और एक अँगूठे के

बंद आगोश में,

बसी है वो रेत लिए हुए,

आज भी अपने अन्दर,

एक नमी-प्यार की, मनुहार की.

 

आखिर यही अन्तर तो होता है,

गीली और सूखी रेत में,

होता है रीतापन सूखी रेत में

और नम रहती है गीली रेत सदा,

आशाओं से, प्यार से और भावनाओं से.

 

 

 

 

भीगे मौसम की सुगंधमयी सदा

 

भीगे मौसम की सुगंधमयी सदा,

श्रावणी परदों से छनकर आती हैं,

और मेरी बंजारन आत्मा के अंतस्‌ में,

इन्द्रधनुषी रंग सजा जाती है।

 

वासन्ती बयार की हल्की सी छुअन,

ले जाती है मन को दूर अनंत तक,

बसा है जहाँ रिश्तों का अनबूझा सा संसार

जहाँ दूर दूर तक अपनेपन का नहीं पता,

हाँ कुछ प्रतिबिम्ब उभरकर आते हैं,

दिल ने जिन्हें नहीं दी कभी सदा।

 

भीगे मौसम की सुगंधमयी सदा,

श्रावणी परदों से छनकर आती है,

और मेरी वैरागन आत्मा के अंतस्‌ में,

इन्द्रधनुषी रंग सजा जाती है।

 

कच्ची धूप की प्रथम किरण,

चुपके से आती है मन के आँगन में,

रहती है दिनभर खट्टी मीठी

यादों  की भूल-भूलैयों में

जीवन संध्या में गोधूलि-बेला ही,

अपने परायों का भेद बता जाती है।

 

भीगे मौसम की सुगंधमयी सदा

श्रावणी परदों से छनकर आती है

और मेरी जोगन आत्मा के अंतस्‌ में

इन्द्रधनुषी रंग सजा जाती है।

 

 

 

 

 

ओ! सागर!!!

 

ओ! सागर! तुम इतने खारे  क्यों हो?कहाँ से लाते हो इतना खारापन?
उच्च पर्वतों से निकली,अठखेलियाँ-बल खातीं, इठलातीं  मीठी नदियाँ ,
कभी झरनों सी झरझराती, कभी झीलों सी झिलमिलातीं मीठी नदियाँ ,
बाँधों से हरहरातीं, दुनिया की प्यास बुझा,धरती को लहलहातीं नदियाँ,
प्रियतम से मिलने आती अभिसारिका सी,तुम पर सर्वस्व लुटातीं नदियाँ,
फिर भी.…  तुम इतने खारे क्यों हो? कहाँ से लाते हो इतना खारापन ?

 

 

सारे संसार को अपने नमक के स्वाद से आनंदित कर नमकीन बनाते हो. 
इस दुनिया की सारी कड़वाहट अपने में भर कर और संगीन हो जाते हो.
प्रकृति की अनुपम देन से गर्भ में अनंत सुन्दर जीवों की क्षुधा मिटाते हो.
अपनी गरमाहट से  तट पर बैठे प्रेमी-जोड़ों  को प्रेम का पाठ पढ़ाते हो.
फिर भी.… तुम इतने खारे क्यों हो? कहाँ से लाते हो इतना खारापन ?
ओ! सागर! तुम इतने खारे  क्यों हो? कहाँ से लाते हो इतना खारापन?

 

 

शोर मचाती उत्ताल-तरंगों के संग आकाश को छूने को मन ललचाता है,
पर विशाल काया के अंदर की हलचल की सुनामी से मन डर जाता है,
तट से क्षितिज तक फैला तुम्हारा असीम साम्राज्य मन को भा जाताहै,
कभी उगते-डूबते सूरज-चन्द्र के रंगों में सतरंगा इन्द्रधनुष समा जाता है,
फिर भी.…  तुम इतने खारे क्यों हो? कहाँ से लाते हो इतना खारापन ?
ओ! सागर! तुम इतने खारे  क्यों हो? कहाँ से लाते हो इतना खारापन?

 

 

 

 

 

इन फूलों  की तरह

 

 

मौन में भी छुपा है बहुत प्यार, इन गुलमोहर के फूलों की  तरह, 
रंगा है मन लाल,प्रेम-स्वीकृति से  खिला है  इन फूलों  की तरह.

 

 

ये ख़ामोश निगाहें ,ये उठती गिरतीं सांसें,मौन अधरों के कम्पन,
बंद होंठों की तब्बसुम पर रंग लाल खिला है इन फूलों की तरह.

 

 

भूली-बिसरी, खट्टी-मीठी यादें,मन में घुमड़ता प्रतीक्षा का ज्वार,
यादों की कसक के कंटकों में मन खिला है इन फूलों की तरह.

 

 

पलकों  और गालों पर प्रेम के हस्ताक्षर से सजावट की बेचैनी ,
अधर-मिलन की प्रतीक्षा में ह्रदय खिला है  इन फूलों की तरह.

 

 

बहुत हुआ, अब न सताओ, करीब आओ, मेरी जान की कसम,
'शील' अब  मेरा ह्रदय गुलाल बन खिला है इन फूलों की तरह.

 



शील निगम

Rainbow Dreams

 

In the depths of despair,
when all hope is lost.
In the darkness of the night,
when the heart cries out.
Riding a chariot of beams they arrive,
bearing gifts of twinkling stars.
As fond memories sitting beside us,
they share a golden past.
Colours of the light, they are
Our rainbow dreams.

 

On the hazy path of life,
when loved ones are lost,
And tears well up,
deep inside the mind.
A lamp of hope is lit,
filling the heart with light
and seven hues of rain.
Colours of the light, they are
Our rainbow dreams.

 

A few silent quests,
a few unanswered questions,
settled deep within the heart,
seeking their replies.
Behind closed eyelids,
inside quiet eyes.
Reading vague sketches of the mind,
they solve the riddles of life.
As they divine the future,
they make the mystery deepen.
Colours of the light, they are
Our rainbow dreams.

 

Shooing out the darkness,
from heart and mind.
They make us laugh and cry,
Smiling knowingly all the time.
At the edge of reality and fiction,
they leave a perplexed heart.
Our dreams, in colours of the light,
they are a mystery full of life.

 

 

Sheel Nigam.

SEARCH

 

(Has anyone seen God? Perhaps no... But most of us must have felt His presence in our heart. When we exclaim 'Oh my God' or 'Thank God, you’ve saved me', then we remember Him unknowingly. God is present everywhere but we must have the urge to experience His presence, to bear Him in our heart and soul. We must have the inner urge to seek Him out.


There is a God, our Creator on whose supreme will the world exists. God is called the Creator, the Generator (G), Operator (O), and Destroyer (D) of this world. We cannot see Him with our eyes and we cannot touch Him with our senses. Even though we know that He is all around us, we do not see Him. He is the controller of the world. He is God. He never dies. He never changes His position. He is the Almighty. He knows the past, present and future. He is omniscient. He can do anything He wishes. He is merciful. God is the embodiment of love and affection.  
One day we will surely have to give up our body. Even if we are not able to say whether God is real or not, we know that death is true. This is undeniable, even by atheists. Everyone knows the reality of death. All suffering is real, but we don't know it’s true cause. All suffering will end when we leave for our heavenly abode, when our soul will meet the Almighty. Before we die we should seek God within ourselves.)

Lonely was I, in the concert of my melancholic world,
Alone, I set out on the path of your love.
I sought you in vain, my God, in the darkness of the fog,
Alone, I journeyed with the fleeting clouds.
I sought you in vain, my God, in the blisters of my weary feet,
Alone, I sculpted forsaken tears of brine.
I sought you in vain, in the fragrant buds of Spring,
Alone, I whispered to the roses on my way.
I purified my soul and cloaked it in love and devotion.
At last, I sought you in the depths of my heart,
There, I found you, in me, lonely no more.

Manchester

Place: TBA
 
Date: December, 2017
 
Time: TBA
 
Contact - Email: gdsmsalumni@gmail.com

 

 

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